Thursday, September 11, 2014

अंडरवर्ल्डः क्या फिर लौट रहा है मुंबई गैंगवार


वर्ष 2011 में 11 जून के दिन एक वरिष्ठ पत्रकार जे डे की सरेराह हत्या। यह बात किसी से छुपी नहीं कि इस हत्याकांड के तार अंडरवर्ल्ड से जुड़े थे। वर्तमान की प्रष्ठभूमि पर नजर डालें तो अब फिल्म प्रोड्यूसर करीम मोरानी को मारने की कोशिश, फिर अभिनेता शाहरुख खान को धमकी अब एक पत्रकार की सुपारी। क्या संकेत देता है। इसका साफ संकेत यह है कि फिर से दाउद के गुर्गे, छोटे और मोटे डॉन अपना आतंक फिर से फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे सबसे पहला सवाल तो यही उठ रहा है कि क्या मुंबई फिर गैंगवार की ओर बढ़ रही है। ऐसा गैंगवार जो साठ के दशक में हुआ।


दाउद इब्राहिम जब अपनी युवा अवस्था में था तो हाजी मस्तान, लाला, छोटा राजन, रामपुरिया गैंग, इलाहबादी गैंग, मद्रासी गैंग में जो खूनमखान मचा। मुंबई पुलिस भी रोक पाने में असमर्थ थी। एक-एक कर व्यापारी औऱ फिल्मी जगत से जुड़े लोगों की हत्या की जा रही थीं। दरअसल, हत्या उनकी की जा रही थी जो गैंगस्टर्स को महीने की बंधियां यानी मोटी रकम नहीं पहुंचा रहे थे या जिन्होंने रकम देने से मना कर दिया था।

हुसैन जैदी की किताब डोंगरी टू दुबई में दी गई एक जानकारी ने इस ओर इशारा किया है कि उस समय कई गैंगस्टर्स चोरी-छिपे फिल्मों में पैसा लगाया करते थे। गुल्शन कुमार की सरेआम हत्या कर देना इसी का ही नतीजा था। वहीं उस दौर में कई व्यापारियों को भी धमकियां मिलती थीं जो अकसर फिल्मों में पैसा लगाया करते थे या फिल्मी जगत से जुड़े थे। यही नहीं, अभिनेता संजय दत्त के तार दाउद इब्राहिम के साथ जुड़े होने के कई मामले जो अब तक सामने आए। उसको भी थोड़े अलग नजरिए से देखने की जरूरत है।

अंडरवर्ल्ड का खात्मा तो गैंगवार खत्म
अंडरवर्ल्ड के गुर्गे बड़े व्यापारियों से वसूली करते। बड़े व्यापारी अपना टैक्स बेशक न चुकाते लेकिन अंडरवर्ल्ड की वसूली जरूर चुकाते। इसमें पुलिस वालों की भी शह रहती। यह सब 60 के दशक का समय था। जब अंडरवर्ल्ड का पूरा खाका तैयार हो रहा था और काले धन को सुरक्षित रखने के रास्ते खुल रहे थे। लाला, पठान औऱ उसके बाद दाउद इब्राहिम का फलना फूलना। हवाला कारोबार, तस्करी जैसे कारनामों का जन्म तभी हुआ था। हवाला कारोबार तो अंडरवर्ल्ड की आड़ में इतना फला फूला कि तब से लेकर आ जक न ही इस पर रोक लग पाई और न ही कभी यह पता चल पाया कि सफेद पौशाक, अंडरवर्ल्ड का भारत में मौजूद शातिर औऱ खाकी वर्दी में चुपके अपना काम कर जाने वाले वह शक्तिशाली लोग कौन हैं।
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वनइंडिया में प्रकाशित। 

सांस्कृतिक दूरियों को उजागर करती यह फिल्म

(टू स्टेट्स)

 पांच में से चार स्टार


एक राज्य के लोग दूसरे राज्य से आने वाले लोगों से नफरत करने लगे हैंकोई साउथ से आता है तो मेट्रो सिटी में रहने वाले लोगोंको चिढ़ होती हैबिहार से आता है तो उससे सीधे से बात करने से पहले ही बिहारी कह-कहकर जलील किया जाता है। उत्तर-प्रदेश से महाराष्ट्र में जाने वाले कई लोगों को इसी अजीब सी स्थिति से गुजरना पड़ता है। इससे एक अलग-अलग राज्यों की संस्कृतियों के बीच की दूरी एक बड़ी खाई में दब्दील हो रही है। शायद यह इसलिए भी है क्योंकि वर्तमान के प्रतियोगी दौर से अंधाधुंध गुजर रहे समाज को एक दूसरे से बात करने तक की फुरसत नहीं है। 

लोग अपने पड़ोस में ही रहने वाले लोगों से बात नहीं करतेदूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को तो समझना दूर है। यहां तक कि इस भाग रहे जीवन में अपने परिवार के सदस्यों को भी समय नहीं दे पा रहे हैं जिससे आपसी मेल-मिलाप व एक दूसरे को समझने की क्षमता घट रही है। 

 अभिषेक वर्मन द्वारा निर्देशित फिल्म स्टे्टस देखीजिसमें देश में सांस्कृतिक समझ के कम होते रहने से उपज रही सांस्कृतिक दूरियां दिखाई गई है। अभिनेता अर्जुन कपूर ने मेट्रो सिटी में रहने वाले अपने ही कल्चर के दायरे में सिमटे परिवार के बेटे की भूमिका बखूबी निभाई है वहीं अलिया भट्ट दक्षिण भारतीय उच्च शिक्षित व विभिन्न संस्कृतियों से अनभिज्ञ रहने वाले परिवार की बेटी के रूप में नजर आईं। कहानी की शुरूआत वाकई व्यवहारिक लगती है। 

अर्जुन कपूर व अलिया भट्ट आईआईएम अहमदाबाद में एमबीए करने के दौरान मिलते है। वहां दोनों को प्यार होता हैदोनो शादी करना चाहते हैंदोनों अपने-अपने माता-पिता को मिलवाना चाहते हैं लेकिन पहली मुलाकात में दोनों के परिवार एक दूसरे की संस्कृतियों को न समझते हुए हिचकते हुए बात ही नहीं कर पाते। जिसके बाद दोनों के परिवार के मन में पूर्वाग्रह जन्म लेता है। 

वहीं एक तरफ क्रिष (अर्जुन कपूर) की मां (अर्मिता सिंह) दहेज के रूप में अपनी महत्वकांशा पूरी करने का ख्वाब भी सजा लेती हैं और इन सब के बीच क्रिष (अर्जुन कपूर) के पियक्कड़ पिता का किरदार अदा कर रहे रोनित रॉय भी अपने बेटे की भावनाओं को नहीं समझ पाते हैं।
 इसी तरह अनन्या (अलिया भट्ट) अपने माता-पिता को मनाने की कोशिश करती है लेकिन पिता (शिवकुमार) व मां (राधा स्वामिनाथन) पूर्वाग्रह में उलझे रहते हैं और अपनी बेटी की भावनाओं को समझ नहीं पाते। कोशिश करने के बावजूद कुछ नहीं हो पातारिश्ता टूट जाता है। 

हालाकि वास्तविक जीवन से हटकर फिल्म का अंत सुखद दिखाया गया। दोनो परिवार एक दूसरे की संस्कृति को जनते हैं और बातचीत कर सांस्कृतिक दूरियां मिटा लेते हैं। देश का समाज प्रतियिगता के चक्कर में अलग-थलग पड़ता जा रहा है। फिल्म की तरह सुखद रिश्ते स्थापित करने के लिए समाज के हर वर्ग को एक दूसरे सांस्कृति को मान देना होगा।