मीडिया की कवरेज एक तरफा और अन्ना या इरोम
साहित्यक समिक्षा
18वी शताब्दी के दौर में मीडिया जिस लगन और समर्पण से अपनी भूमिका को समाज के सामने रख रही थी..वह तारीफ़ के काबिल थी। आजादी से पहले आजादी प्राप्त करने के लिये बहुत से समाजिक आन्दोलन चलाये जा रहे थे..उन आन्दोलनो को सही रूप से प्रचारित कर लोगो के दिलो में राष्ट्रभक्ति की भावना के साथ अधिकारो के प्रति जागरुकता की "लौ" को जलाने में एक कामयाब भूमिका का निर्वाहन किया था। आजादी से पहले और आजादि के कुछ समय बाद तक मीडिया ने अपने उद्देश्य से न भटकते हुये पत्रकारिता के मूल्यों को समझकर समाज की हर एक घटना को एक बराबर कवरेज दी और लोकतंत्र के पैरोकार की तरहं समाज के सामने घटना के हर एक बिंदू पर विशाल नजरिय से विश्लेषण प्रकट किया। पर आज के मीडिया की भूमिका को देखा जाये तो आजादी से पहले और आजादी के कुछ समय बाद तक की मीडिया की भूमिका से बिलकुल अलग हटकर साबित होती है।
जय प्रकाश के आन्दोलन के समय जब इमर्जेंसी लगाई गई, उस समय मीडिया अपनी आजादी की तो लडाई लड ही रही थी साथ ही साथ लोकतंत्र की आवाज को भी बुलंद कर रही थी। पूर्व की मीडिया एक उदाहरण मात्र रह गय़ी है। विवाद जुडा हो या ना हो..या कोई मशहुर व्यक्ति हो या न हो समाज में घटित हो रहीं हर घटना को एक समान कवरेज देकर समाज को सूचनओ से आवगत कराने में पूर्व की मीडिया की अहम भूमिका रहती थी....
70 के दशक के में पत्रकारिता एक अचछा खासा उदाहरण खुद इंडियन एक्सप्रेस के निर्माता रामनाथ गोयनका थे। जिन्होने अपने फोटो को अपने ही अखबार में छपे होने से सख्त नाराजगी जताते हुये कहा था कि "छपा हुआ तभी विश्वासनीय होता है जब वह न सिर्फ़ लोकहित में हो बल्कि पढनेवालो और देखने वालो को भरोसा भी हो कि वह लोकहित में ही है"
वर्तमान में मीडिया द्वारा दी जारी कवरेज पर नजर डाली जाये तो देखना होगा कि मनिपुर की इरोम शर्मिला- "आयरन लेडी" और एक रिटायर्ड फ़ौजी अन्ना हजारे को दी जारी कवरेज में जमीन आसमान जैसा अंतर साफ़ तौर पर नजर आ जाता है।
मनिपुर की रहने वाली "आयरन लेडी" यानी इरोम शर्मिला पिछले दस वर्षो से आर्म फ़ोर्स स्पेशल पावर एक्ट की वजह से पूर्वोत्तर क्षेत्रों में फ़ैले खौफ़ और आम जन के साथ हो रहीं ज्यादतियों को खत्म कर समाज में चेन-सुकून फ़ैलाने के लिय 1952 के जमाने में बनाए गये इस आर्मी फोर्स स्पेशल पावर एक्ट को हटाने को लेकर विरोध दर्ज करते हुये अनशन कर रहीं हैं।
दस साल तक अनशन करने का सोचने पर ही इस बात का अंदाजा तो हो ही जाता है कि एक महिला को समाज के उद्धार के लिय कितना कष्ट सहना पड रहा है। इरोम अपनी मजबूत इच्छा शक्ति के बल पर दस साल से लगातार समाज के लिये लड रहीं हैं...हलाकि इन सालों में इरोम का स्वास्थ गिरता गया है। इरोम जो कष्ट समाज के लिये सह रही हैं उसको देख कर ये कतई विश्वास नही होता कि आज के वर्तमान युग में जहां हर कोई ऐशो-आराम का जीवन बिताना चाहता हो वहीं एक महिला ऐसी भी हो सकती है जिसने समाज के लिये अपना जीवन ही दाव पर लगा दिया है। पर विचारने वाली बात है कि आज समाज का बहुत छोटा सा ही भाग इरोम शर्मिला को जानता होगा। इरोम को देश के समाज का उचित रूप से समर्थन मिल ही नही पाया। सही माईनो में, इस के पीछे आज की मीडिया जिम्मेदारर है यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नही होना चाहिये। इतिहास गवा रहा है कि समाज में होने वाले किसी भी समाजिक आन्दोलन को पूरी तरहं से समाज के कानो तक पहुंचाकर आन्दोलन के प्रति मीडिया ने लोगो को जागरुक किया है। वहीं 1965 के दोरान भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपनी भूमिका निभाने वाले और रिटायर्ड फ़ौजी अगर अन्न हज़ारे के बारे बात की जाये तो वह एक माहन वक्ति है यह कहने में भी कोई हर्ज नही है। अन्ना ने अपना पूरा जीवन समाज सेवा करते-करते काटा है। आज के समय शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिल पाये जो समाज की तमाम सुख-सुविधाएं को छोड समाज को सही दिशा देने और देश को प्रगति की राह पर लाने के लिय दिलो जान से संघर्ष करने में जुट जाये। जहां तक इरोम और अन्न के संघर्ष की तुलना करे तो दोनो ही समाज के लिये लड रहे हैं पर अन्न का आन्दोलन इरोम के आन्दोलन से इसलिय बडा दिखाई देता है क्योंकि अन्ना के आन्दोलन का दायरा चौडा है और इस दायरे से ज्यादा से ज्यादा समाज के हर वर्ग के लोगो को आवगत कराने के लिये मीडिया ने बढ चढ कर काम किया है। मीडिया ने बढचढ कर काम किया, इसका मतलब यह नही कि अन्ना हज़ारे ने जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन छेडा उसे जो भी समर्थन मिला वो केवल मीडिया के बल खडा किया गया आन्दोलन था। भारतीय इतिहास की ओर नजर डालते हुये शुरूआती स्वतंत्र भारत या स्वतंत्रता के बाद के दौर में मीडिया ने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया यह बात कहने में कोई हर्ज नही है। क्योंकि 1947 से पहले ओर के बाद की पत्रकारिता की जो तस्वीर उभरकर समाज के सामने आयी थी वो अतुल्य रही थी। मीडिया के मूल उद्देश्य में समाज को जानकारियां मुहया कराकर अधिकारों के प्रति सचेत करना और वातावरण में घट रहीं घटनाओं की जानकारियों से अवगत कर जागरूक करना ही शामिल होता है। अन्ना हज़ारे और ईरोम शर्मिला के आन्दोलन बेशक दो अलग-अलग समस्या या मुद्दों को लेकर हों पर दनो ही समाज के लिय हैं. इन दोनो समाजिक आन्दोलनो को कवरेज देने में मुख्य-धारा की मीडिया की क्या भूमिका रही..यही तराशने की कोशिश की जाएगा.
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अतीत और मीडिया की भूमिका पर नजर :-
अतीत में समाजिक आन्दोलनो के लिये मीडिया की कवरेज सराहनीय थी. अगर विश्वयापी नजर से देखा जये तो १४वी और १५वी के बीच जब यूरोपीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा था तब मीडिया ने एक सराहनीय भूमिका निभाते हुये समाज को उनके मूल अधिकारो प्रति जागरुक किया था. जिससे वहां फ़ैली बुराईयां खत्म हुई थी और अधिकारो की स्वतंत्रता आम समाज को मिल पाई थी.
इसी प्रकार अगर भारत में मीडिया की सराहनीय भूमिका की बात की जाये तो वर्तमान छोड अतीत में झाकना ही होगा. करीब १८२१-२२ "संवाद कौमुदी" से लेकर १९४३ के आस-पास के दौरान अनेकों पत्र-पत्रिकाये प्रकाशित की गयी जिन्होने समाजिक आन्दोलनो के एक बराबर कवरेज देकर समाज के हर तबके को उनके अधिकारो के प्रति जागरुक कर भारतीय मीडिया ने अपनी भूमिका को बखूबी निभाया था. उस समय सती-प्रथा और बाल विहाह और इसके अलावा अनेकों समाजिक आन्दोलन चालाए जा रहे थे. जिन्हे अतीत की मीडिया ने सराहनीय भूमिका सफ़लता की राह ला खडा किया था. पर आज का मीडिया की भूमिका इसके बिलकुल उलट है. आज मीडिया समाज के हित के लिय बाद में अपने लिये ज्यादा काम करती दिखाई देती है.
इरोम शर्मिला और आन्दोलन- मणिपुर की "अयरन लेडी" यानी इरोम शर्मिला के बारे आज भी शायद ही देश के समाज का एक बडा तबका जानता हो. गांधीवादी विचारो से ओत-प्रोत इरोम एक समाजिक हितो के लिए लडने वाली महिला है. सन २००० से अनशन कर रही हैं. आर्म फ़ोर्स स्पेशल पावर एक्ट-१९५८ को हटाने की मांग को लेकर इरोम पिछले ११ सालों से अनशन कर रही हैं.
"दरअसल आर्म फ़ोर्स स्पेशल पावर एक्ट (आफ़सपीए) एक ऐसा कानून है जिसके तहत वहां की आर्मी को ऐसे कुछ विशेष अधिकार मिले हुये है कि वें किसी को भी शक के बिना पर ही गिरफ़्तार कर उसपर कार्यवाई कर सकते हैं और यहां तक की हत्या शक होने पर ही हत्या करने का भी विशेष अधिकार मणिपुर की आर्मी के पास हैं".
इरोम ने आमरण अनशन करने का इतना कडा फ़ैसला तब लिया जब इरोम देखा कि अब इस कानून की आड में ज्यदतीयां और समाज के अधिकारो का हनन हो रहा है. उस समय इंफाल हावाई अड्डे के पास महज शक के बिना पर करीब ११ लोगो पर आर्मी ने गोलियां दागकर मार दिया था-(भडास4मीडिया डोट कोम का लेख - "अन्ना से प्यार और इरोम की अनदेखी कर रही मीडिया" लेखक नागमणी पाणडय) . पर दुर्भग्यवश है कि आज ११ साल साल हो गये और इरोम अभी भी समाज को अधिकारो की स्वतंत्रता दिलाने के लिये लगातार अनशन कर रही हैं. पिछले लगभग पचास सालो से आर्मी ने अपना बर्बर राज किया हुआ है जिसके चलते लोगो बालात्कार, हत्या आदी गंभीर समस्याओं की आग में झुलस रहें हैं. मणिपुर में यह स्पेशल पावर एक्ट हटे और मानव अधिकारो का उलंघन खत्म हो जाये बस इसलिये हीं इरोम शर्मिला पिछले ११ सालो से भूक हडताल कर रहीं हैं. पर सवाल है कि क्यों इतने साल अनशन करने पर भी लोगो समाज का पूरा समर्थन नही मिल पाया या यह कहिय कि आखिर क्यों इतने सालों तक भूक हडताल करते रहने पर मीडिया ने इतनी दिल चस्पी नही दिखाइ जितनी अन्ना के आन्दोलन में दिखाई? इस प्रशन का उत्तर खोजने की आगे कोशिश की जायेगी पर इससे पहले अन्न के आन्दोलन और उनके जीवन पर नजर डालते है.
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अन्ना हज़ारे और आन्दोलन:-
भारत-पाकिस्तान के बीच १९६५ में हो रहे घमासान युद्ध दौरान भारतीय सेना में बतोर सेना के जीप चालक के रूप में अपना योगदान देने वाले अन्ना हज़ारे जब वोल्यूनटियर रिटायरमेंट के बाद अपने गांव रालेगण सिद्धी लोटे तब अन्ना का लक्ष्य भ्रष्टाचार से लडना नही था पर देखा जाए तो भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से समाज के हीरो और चर्चित व्यक्ति बन गये. यहां तक कि उन्हे समाज ने दूसरा गांधी कहा. एक रिटायर्ड फ़ौजी अन्ना जो बाहत्तर साल के एक बुज़ुर्ग हैं..उनमें आखिर ऐसा क्या था कि सारा सामाज उनके साथ हो चला?
अन्ना हज़ारे के ३ अप्रेल, २०११ के दिन दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर अनशन करने से पहले समाज में शायद ही हर तबका उन्हे जानता और पहचानता हो लेकिन जब ३ अप्रेल को अन्ना ने भ्रष्टाचार निरोधक जनलोकपाल कानून लाने के लिये भ्रष्टाचार के विरोध में जन्तर-जन्तर मन्तर में अपनी आवाज बुलन्द की तो भ्रष्टाचार से त्रस्त और उम्मीद छोड चुके समाज को जैसे कोई मसिहा मिल गया ऐसा था. समाज का हर तबका अन्ना के साथ अपनी आवाज भी बुलन्द कर रहा था. अन्ना ने इससे पहले १९९७ में सूचना अधिकार कानून को ऐसे अनशन पर बैठकर महाराष्ट्र सरकार को लागू करने को मजबूर कर दिया था, जो बाद में २००५ में केंद्र में भी लागू हुअ. जिससे कई भ्रष्टाचार के मामले सामने आ पाये और आम समाज को भी सूचना मांगने का अधिकार मिल गया. देखा जाये तो अविवाहित अन्ना हज़ारे ने पूरा जीवन समाज सेवा में काटा है. मीडिया ने अन्ना के आन्दोलन को ही इतनी तवज्जो अन्ना की शक्ति को समझ कर दी होगी ऐसा कहना काफ़ी हद तक ठीक हो सकता है. जिससे मीडिया में एक विश्वास भी बना कि अन्ना की कवरेज की तो समाज उनके साथ होगा. पर इरोम और अन्ना दोनो ही समाज के लिय लड रहे हैं तो आखिर मीडिया ने अन्ना को ही क्यों चुना?. अन्ना और इरोम के आन्दोलनो की टीवी कवरेज में इतना गेप (अन्तर) कैसे हुआ इसी अन्तर को समझने की कोशिश की जायेगी आगे. मैं हिंदी चेनल आईबीएन७ की कवरेज को केंद्र में रखकर अन्ना और इरोम दी गई कवरेज पर आगे नजर डालूंगा.
यहां अब आईबीएन७ को केंन्द्र में रख कर विश्लेषण किया जायेगा. आईबीएन७ की २४ कुल चोबीस से पच्चीस वीडियो ही आईबीन ७ की साईट से डाऊनलोड हो पायी. पर साईट पर अन्य वीडियो भी दखने के बाद जब मेने वीडियो देखी तो ताज्जुब इस बात पर हुआ कि आईबीएन७ की साईट पर अन्ना हज़ारे की ढेरो वीडियों मिल गयी पर इरोम शर्मिला की कवरेज का एक इन्टरव्यू मिला वो भी लिखा हुआ. इससे साफ़ तौर से झलक तो जाता है कि अन्ना और इरोम के आन्दोलनो को कवर करने में पक्षपात या कह सकते है की मीडिया ने एक तरफ़ा कवरेज दी. पत्रकारिता के क्षेत्र में आईबीएन७ की भूमिका भले ही दूसरे चेनलो से थॊडी हटके और अलग तेवरो वाली साबित होती हो लेकिन अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोल और इरोम शर्मिला के आन्दोलन को कवर करने में आईबीएन७ ने सीधा-सीधा पक्षपात कर दिया. अगर अन्न को १०० प्रतिशत कवरेज देनी ही थी तो कम से कम १० प्रतिशत कवरेज इरोम शर्मिला को देने में क्या हो जाता. हलाकि दोनो ही समाज के लिये लड रहे है और दोनो के ही आन्दोलन समाज के अधिकारो की लडाई है. तो ऐसा क्या हुआ कि अन्ना पर मीडिया ऐसी बरसी कि ३ अप्रेल से लेकर ११ अप्रेल और १६ अगस्त से अगले १२ दिनो तक जो मीडिया फ़िल्मी हो चली थी वो अन्ना हज़ारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की कवरेज करने मैदान में ऐसी कूदी कि सारा दिन अन्ना ही अन्न दिखाई देने लगे टेलीवीज़न में. मीडिया का यह रुख देख कर यह भी कयास लगाये जा रहे थे कि वो मीडिया जो अपना उद्देश्य खो चुकी है वो अब सही प्लेटफ़ोर्म पर पहुंच गयी है यानी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का अपना कर्तव्य ठीक निभा रही है. लेकिन क्या वास्तव में मीडिया लोकतंत्र के स्तंभ जैसा कर्तव्य निभा रही है?. यह सवाल आज भी वैसा ही बना हुआ है. आईबीएन७ की कवरेज पर नजर डालके ही पता लग जाता है कि अन्ना द्वारा चलाए जा रहे भ्रष्टाचार विरोधी समाजिक आन्दोलन को कवरेज देने में आईबीएन७ का झुकाव रहा. यह झुकाव क्यों रहा इसका उत्तर खोजने की कोशिश अगर की जाये तो एक बिंदू उभर कर ये भी आता है कि इरोम मणिपुर में अपना समाजिक आन्दोलन चला रहीं है. मणिपुर जाने में मीडिया को मोटी लागत या खर्च ज्यादा करना पडता जो दिल्ली में या मीडिया के घर (दिल्ली) पर किये जाने वाले खर्च से बहुत ज्यादा बैठता. अन्ना ने अपने आन्दोलन को राजधानी दिल्ली में आकर आगे बढाया. इससे पहले भी अन्ना महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के लिय अकसर लडते रहे है पर विशेष मीडिया (आईबीएन७ आदी) की उनको इतनी कवरेज नही मिल पाई थी कि लोग उनके और उनके आदोलन के बारे में सही रूप से जान पाते. लेकिन देखा जाये तो अन्न ने जैसे ही अपना आन्दोलन दिल्ली के जंतर-मंतर से आगे बढाया तब से अन्ना का आन्दोलन देश के हर कोने में रहने वाले हर शक्स का आन्दोलन बन गया.. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति न होगी. जैसे ही अन्न ने दिल्ली आकर धरना दिया तब से मीडिया ने ऐसी कवरेज दी कि लगने लगा की भारतीय मीडिया बहुत अच्छी भूमिका निभा रहा है. दरअसल एक चक्र काम कर रहा था जो "टीआरपी" के नाम से जाना जाता है. अन्ना को कवरेज देते हुए मीडिया को देश में लगे हाथ वापस मिलती हुई चौथे स्तंभ के रूप में इज्जत और टीआरपी दोनो ही प्राप्त होती दिख रही थी. तो आईबीएन७ भी इसी रास्ते पर अगे बढ रहा था क्योंकि आईबीएन७ भी तो आज की मीडिया का ही एक अंग है. जब आईबीएन७ साईट पर गये और इरोम से जुडी वीडियो खोजने की कोशिश की गयी तो विडिओ भले नही मिली लेकिन एक महज लिखित साक्षात्कार जरूर मिल गया. वो भी इंटरव्यू नेटवर्क१८ में काम करने वालीं लेकिन सीएनएनआईबीएन की एंकर अनुभा भोंसले द्वारा इंटरव्यू था. उस इंटरव्यू शुरूआती अंश पर नजर डाली तो इरोम एक प्रशनो के जवाब में कहा है कि "मै सबसे पहले प्रधानमंत्री से कहना चाहति हुं कि वो हमें भी अन्ना की तरहं गंभीरता से देखें.. और मैं इतना ही चाहती हुं कि वो अपना माईंडसेट बदलें", अन्ना के बारे में पूछने पर कहा कि -"मैं अन्ना का संघर्ष एक सीमित समय किया जा रहा है और अन्ना को अन्ना को नोकर शाहों समर्थन है" और इसके अलावा इरोम ने अनशन तोडने के सवाल के जवाब में कहा कि- केवल बातों से नही अगर सरकार गंभीरता से कदम उठाए और लिखित आश्वासन दे, तो मैं अनशन तोड दूंगी"...
शायद ही यह सब कही गयी बाते किसी को याद हों कि इरोम जिस कष्ट में है उस दौरान उन्होने यह बाते प्रधानमंत्री और अपने समाज तक पहुंचायी हैं. शायद ही यह बाते सरकार के कानो तक भी भारी दवाब यानी लोकतंत्र के दवाब के साथ पहुंची हो. जब लोकतंत्र की बात को सरकार के कानों तक पहुंचानी होती है तो मीडिया एक सबसे मजबूत भूमिका निभाती है पर यहां मीडिया की इस तरहं इतनी ढीली और एक तरफ़ा भूमिका देख कर तो साफ़ झलकता है कि हमारी आज की मीडिया जिसमें आईबीएन७ भी शामिल है, ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका निभाई हो ऐसा कतई नही लगता. यहां तो साफ़ तौर पर यह कहा जा सकता है कि इरोम और अन्ना के आन्दोल को कवर करने में मीडिया या आईबीएन७ ने लोकतंत्र की लडाई नही बल्कि अपने हित की सोचने में ज्यादा रूची दिखाई. "प्रभाष जोशी-६०" पुस्तक मीडिया के लिय जिस बात का जिक्र किया गया वाकई आज दौर में भी बिलकुल सटीक ठहरती है. पुस्तक में कहा गया है कि "मीडिया वाले हाईप करते हैं, मीडिया वाले हर किसी का ढिंढोरा नही पीटते, बल्कि अपने यहां तो सचमुच की घटना या बात का नोटिस तक नही लेते, वें वहीं टूटते हैं जहां वीवीआईपी लोग हो या कोई राजनीतिग्य हो या कोई विवाद हो." यह चंद लाईने हमारी आज मीडिया की भूमिका को साफ़ बतला रहीं हैं. आज मीडिया हर घटना में कोई न कोई विवाद खोजती है.. जहां उसे विवाद दिखने लगता है उसको कवर करने के लिये बेहद दिल चस्पी से मैदान में कूद पडती है. आईबीएन७ पर भी यही बात लागू होता है.
मीडिया को यह अंदाजा तो आसानी से हो ही गया होगा कि अन्ना के नेत्रत्व में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से जब समाज के हर कोने से लोग अगे जुड रहे है तो, उनसे जुडी हर चीज में भी दिलचस्पी दिखाएंगे ही. तो आईबीएन७ की अगर बात करें तो उसने अन्ना से जुडा एक "यूवा एंड युथ- विवेकानंद" कार्यक्रम शुरू किया गया. जिसमें बताया गया कि अन्ना विवेकानन्द जी के विचारो से बहुत ज्यादा प्रभावित हैं. जाहिर सी बात है कि जिससे लोगो के दिमाग में अन्ना को लेकर आशंकाए दूर हो गई होंगी. यह देख कर जरूर कहा जा सकता है कि मीडिया लोकतंत्र के हित में अपने कर्तव्य को ठीक निभा रहा है पर इरोम की तरफ़ जब नजर डालते हैं और देखते है कि वे ग्यारहा सालों से आर्म्ड फ़ोर्स स्पेशल पावर एक्ट को हटाने की मांग को लेकर अनशन कर रहीं है और मीडिया ने उनके आन्दोलन को कवर करने में इतनी दिल चस्पी दिखाई ही नही तो.. यह साफ़ तौर पर लगता है कि मीडिया वहीं जाता है जहां विवाद जुडा या कसी रूप में उससे मीडिया फ़ायदा हो रहा हो. आज समाज हर नागरिक अन्ना के बारे में, अन्ना के आन्दोलन के मुद्दे के बारे में और अन्ना के गांव के बारे में परिचित होगा यह कहने में कोई हर्ज नही. लेकिन "आयरन लेडी" इरोम के बारे में, इरोम के आन्दोलन के मुद्दे के बारे में और यहा तक की इरोम जेल वार्ड के जे० एन होस्पिटल के एक कमरे में बंद हैं यह बात भी शायद ही कोई आम नागरिक जानता हो ऐसा बिलकुल नही है. मतलब अन्ना से जुडी हर चीज के बारे लोग जितना जानते है इसके मुकाबले इरोम से जुडी किसी चीज के बारे देश का बहुम छोटा तबका ही होगा जो जानता होगा. इसमें मीडिया ने एक तरफ़ा भूमिका निभाई है.
अन्ना हज़ारे को साकारत्मक ही कवरेज?
कहते हैं कि मीडिया का कर्तव्य होता कि हर एक घटना को एक संचार माध्यम के रूप में लोगो तक पहुंचाए, उसमें संदेह हर घटना पर करे और हर घटना को एक समर्थक की तरहं नही बल्कि संचार माध्यम की तरहं निभाए. जहा तक वीडियो को देखा जाए तो अधिकतर वीडियो को अगर कोई अपरिचित व्यक्ति देखे तो उसकी सोच सिर्फ़ अन्ना हज़ारे जी का आन्दोलन जो अब देश का आन्दोलन बन चुका है बिना समझे सबसे ऊपर लगने लगेगा.. आईबीएन७ पर वीडियो देखने पर साफ़ झलकता है कि अन्ना हज़ारे द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को टीवी मीडिया ने साकारात्मक कवरेज दी है या यह कहना ठीक होगा की एक तरफ़ा कवरेज दी है. लेकिन इरोम, जो पिछले ग्यारहा वर्षो से अनशन कर समाज के लिय अन्ना की तरह वो भी लड रही है पर आईबीएन७ के पास उनको कवरेज करने का समय नही निकला? "इएनम" नाम से एक एजंसी की तीन अप्रेल से ग्यारह अप्रेल तक अन्ना की कवरेज पर टेलीवीजन मोनिटरिंघ रिपोर्ट पर नजर डाले तो पता चलता है कि अन्ना उस दौरान एक टेलीवीजन मीडिया के लिय एक ब्राण्ड बन गये थे. यहा तक कि बिसनिस चेनल्स जो समाजिक मुद्दो से अकसर दूर रहते हैं ज़ी, ब्लूम्बर्ग, और नेटवर्क१८ का ही सीनबीसी और सीनबीसी आवाज़ ने भी अन्ना की कवरे करने में कोई देर नही की. रिपोर्ट के अकडे बताते है कि उस दौरान अन्ना को ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक कवरेज मिली फ़िर चाहे वो वो आईबीएन की कवरेज हों या किसी चेनल की. उस दौरान टोन के आधार पर कुल ६५ नाकारात्मक क्लिप रिकोर्ड में आईं और इसके मुकाबले कुल ५५९२ साकारात्मक क्लिप्स रिकोर्ड में आई. उस दौरान या उससे पहले भी अगर देखा जाये तो मीडिया ने इरोम के नेत्रत्व में चल रहे समाजिक आन्दोलन को इतनी रूची के साथ नही लिया. यहा भी साफ़ हो जाता है कि साफ़ मीडिया ने अपने उद्देश्य से भटकते हुये एक तरफ़ा कवरेज की.
मीडिया, अन्ना और इरोम-
यहां अब आईबीएन७ को केंन्द्र में रख कर विश्लेषण किया जायेगा. आईबीएन७ की २४ कुल चोबीस से पच्चीस वीडियो ही आईबीन ७ की साईट से डाऊनलोड हो पायी. पर साईट पर अन्य वीडियो भी दखने के बाद जब मेने वीडियो देखी तो ताज्जुब इस बात पर हुआ कि आईबीएन७ की साईट पर अन्ना हज़ारे की ढेरो वीडियों मिल गयी पर इरोम शर्मिला की कवरेज का एक इन्टरव्यू मिला वो भी लिखा हुआ. इससे साफ़ तौर से झलक तो जाता है कि अन्ना और इरोम के आन्दोलनो को कवर करने में पक्षपात या कह सकते है की मीडिया ने एक तरफ़ा कवरेज दी. पत्रकारिता के क्षेत्र में आईबीएन७ की भूमिका भले ही दूसरे चेनलो से थॊडी हटके और अलग तेवरो वाली साबित होती हो लेकिन अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोल और इरोम शर्मिला के आन्दोलन को कवर करने में आईबीएन७ ने सीधा-सीधा पक्षपात कर दिया. अगर अन्न को १०० प्रतिशत कवरेज देनी ही थी तो कम से कम १० प्रतिशत कवरेज इरोम शर्मिला को देने में क्या हो जाता. हलाकि दोनो ही समाज के लिये लड रहे है और दोनो के ही आन्दोलन समाज के अधिकारो की लडाई है. तो ऐसा क्या हुआ कि अन्ना पर मीडिया ऐसी बरसी कि ३ अप्रेल से लेकर ११ अप्रेल और १६ अगस्त से अगले १२ दिनो तक जो मीडिया फ़िल्मी हो चली थी वो अन्ना हज़ारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की कवरेज करने मैदान में ऐसी कूदी कि सारा दिन अन्ना ही अन्न दिखाई देने लगे टेलीवीज़न में. मीडिया का यह रुख देख कर यह भी कयास लगाये जा रहे थे कि वो मीडिया जो अपना उद्देश्य खो चुकी है वो अब सही प्लेटफ़ोर्म पर पहुंच गयी है यानी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का अपना कर्तव्य ठीक निभा रही है. लेकिन क्या वास्तव में मीडिया लोकतंत्र के स्तंभ जैसा कर्तव्य निभा रही है?. यह सवाल आज भी वैसा ही बना हुआ है. आईबीएन७ की कवरेज पर नजर डालके ही पता लग जाता है कि अन्ना द्वारा चलाए जा रहे भ्रष्टाचार विरोधी समाजिक आन्दोलन को कवरेज देने में आईबीएन७ का झुकाव रहा. यह झुकाव क्यों रहा इसका उत्तर खोजने की कोशिश अगर की जाये तो एक बिंदू उभर कर ये भी आता है कि इरोम मणिपुर में अपना समाजिक आन्दोलन चला रहीं है. मणिपुर जाने में मीडिया को मोटी लागत या खर्च ज्यादा करना पडता जो दिल्ली में या मीडिया के घर (दिल्ली) पर किये जाने वाले खर्च से बहुत ज्यादा बैठता. अन्ना ने अपने आन्दोलन को राजधानी दिल्ली में आकर आगे बढाया. इससे पहले भी अन्ना महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के लिय अकसर लडते रहे है पर विशेष मीडिया (आईबीएन७ आदी) की उनको इतनी कवरेज नही मिल पाई थी कि लोग उनके और उनके आदोलन के बारे में सही रूप से जान पाते. लेकिन देखा जाये तो अन्न ने जैसे ही अपना आन्दोलन दिल्ली के जंतर-मंतर से आगे बढाया तब से अन्ना का आन्दोलन देश के हर कोने में रहने वाले हर शक्स का आन्दोलन बन गया.. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति न होगी. जैसे ही अन्न ने दिल्ली आकर धरना दिया तब से मीडिया ने ऐसी कवरेज दी कि लगने लगा की भारतीय मीडिया बहुत अच्छी भूमिका निभा रहा है. दरअसल एक चक्र काम कर रहा था जो "टीआरपी" के नाम से जाना जाता है. अन्ना को कवरेज देते हुए मीडिया को देश में लगे हाथ वापस मिलती हुई चौथे स्तंभ के रूप में इज्जत और टीआरपी दोनो ही प्राप्त होती दिख रही थी. तो आईबीएन७ भी इसी रास्ते पर अगे बढ रहा था क्योंकि आईबीएन७ भी तो आज की मीडिया का ही एक अंग है. जब आईबीएन७ साईट पर गये और इरोम से जुडी वीडियो खोजने की कोशिश की गयी तो विडिओ भले नही मिली लेकिन एक महज लिखित साक्षात्कार जरूर मिल गया. वो भी इंटरव्यू नेटवर्क१८ में काम करने वालीं लेकिन सीएनएनआईबीएन की एंकर अनुभा भोंसले द्वारा इंटरव्यू था. उस इंटरव्यू शुरूआती अंश पर नजर डाली तो इरोम एक प्रशनो के जवाब में कहा है कि "मै सबसे पहले प्रधानमंत्री से कहना चाहति हुं कि वो हमें भी अन्ना की तरहं गंभीरता से देखें.. और मैं इतना ही चाहती हुं कि वो अपना माईंडसेट बदलें", अन्ना के बारे में पूछने पर कहा कि -"मैं अन्ना का संघर्ष एक सीमित समय किया जा रहा है और अन्ना को अन्ना को नोकर शाहों समर्थन है" और इसके अलावा इरोम ने अनशन तोडने के सवाल के जवाब में कहा कि- केवल बातों से नही अगर सरकार गंभीरता से कदम उठाए और लिखित आश्वासन दे, तो मैं अनशन तोड दूंगी"...
शायद ही यह सब कही गयी बाते किसी को याद हों कि इरोम जिस कष्ट में है उस दौरान उन्होने यह बाते प्रधानमंत्री और अपने समाज तक पहुंचायी हैं. शायद ही यह बाते सरकार के कानो तक भी भारी दवाब यानी लोकतंत्र के दवाब के साथ पहुंची हो. जब लोकतंत्र की बात को सरकार के कानों तक पहुंचानी होती है तो मीडिया एक सबसे मजबूत भूमिका निभाती है पर यहां मीडिया की इस तरहं इतनी ढीली और एक तरफ़ा भूमिका देख कर तो साफ़ झलकता है कि हमारी आज की मीडिया जिसमें आईबीएन७ भी शामिल है, ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका निभाई हो ऐसा कतई नही लगता. यहां तो साफ़ तौर पर यह कहा जा सकता है कि इरोम और अन्ना के आन्दोल को कवर करने में मीडिया या आईबीएन७ ने लोकतंत्र की लडाई नही बल्कि अपने हित की सोचने में ज्यादा रूची दिखाई. "प्रभाष जोशी-६०" पुस्तक मीडिया के लिय जिस बात का जिक्र किया गया वाकई आज दौर में भी बिलकुल सटीक ठहरती है. पुस्तक में कहा गया है कि "मीडिया वाले हाईप करते हैं, मीडिया वाले हर किसी का ढिंढोरा नही पीटते, बल्कि अपने यहां तो सचमुच की घटना या बात का नोटिस तक नही लेते, वें वहीं टूटते हैं जहां वीवीआईपी लोग हो या कोई राजनीतिग्य हो या कोई विवाद हो." यह चंद लाईने हमारी आज मीडिया की भूमिका को साफ़ बतला रहीं हैं. आज मीडिया हर घटना में कोई न कोई विवाद खोजती है.. जहां उसे विवाद दिखने लगता है उसको कवर करने के लिये बेहद दिल चस्पी से मैदान में कूद पडती है. आईबीएन७ पर भी यही बात लागू होता है.
मीडिया को यह अंदाजा तो आसानी से हो ही गया होगा कि अन्ना के नेत्रत्व में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से जब समाज के हर कोने से लोग अगे जुड रहे है तो, उनसे जुडी हर चीज में भी दिलचस्पी दिखाएंगे ही. तो आईबीएन७ की अगर बात करें तो उसने अन्ना से जुडा एक "यूवा एंड युथ- विवेकानंद" कार्यक्रम शुरू किया गया. जिसमें बताया गया कि अन्ना विवेकानन्द जी के विचारो से बहुत ज्यादा प्रभावित हैं. जाहिर सी बात है कि जिससे लोगो के दिमाग में अन्ना को लेकर आशंकाए दूर हो गई होंगी. यह देख कर जरूर कहा जा सकता है कि मीडिया लोकतंत्र के हित में अपने कर्तव्य को ठीक निभा रहा है पर इरोम की तरफ़ जब नजर डालते हैं और देखते है कि वे ग्यारहा सालों से आर्म्ड फ़ोर्स स्पेशल पावर एक्ट को हटाने की मांग को लेकर अनशन कर रहीं है और मीडिया ने उनके आन्दोलन को कवर करने में इतनी दिल चस्पी दिखाई ही नही तो.. यह साफ़ तौर पर लगता है कि मीडिया वहीं जाता है जहां विवाद जुडा या कसी रूप में उससे मीडिया फ़ायदा हो रहा हो. आज समाज हर नागरिक अन्ना के बारे में, अन्ना के आन्दोलन के मुद्दे के बारे में और अन्ना के गांव के बारे में परिचित होगा यह कहने में कोई हर्ज नही. लेकिन "आयरन लेडी" इरोम के बारे में, इरोम के आन्दोलन के मुद्दे के बारे में और यहा तक की इरोम जेल वार्ड के जे० एन होस्पिटल के एक कमरे में बंद हैं यह बात भी शायद ही कोई आम नागरिक जानता हो ऐसा बिलकुल नही है. मतलब अन्ना से जुडी हर चीज के बारे लोग जितना जानते है इसके मुकाबले इरोम से जुडी किसी चीज के बारे देश का बहुम छोटा तबका ही होगा जो जानता होगा. इसमें मीडिया ने एक तरफ़ा भूमिका निभाई है.
सीनएन आईअबीएन के सीईओ राजदीप सरदेशाई ने अपने भड़ास4मीडिया में छपे लेख "मीडिया और दो आन्दोलनो की दास्ता” में खुद कहीं ना कहीं माना है कि दूरी की वजह से और लागत बढने डर से भी मीडिया ने इम्फाल जाकर इरोम के बारे कवरेज नही की. देखिय उन्होने साफ़ तोर से कह दिया कि "शायद इम्फाल की तुलना में रामलीला मैदान टीवी स्टूडियो के अधिक निकट है. दूरी की मजबरी है"
इससे साफ़ तौर से अंदाजा हो रहा है कि आईबीएन७ ने अपने हित का ज्यादा और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की तरह अपना दायित्व निभाने की ओर कम ही ध्यान दिया..यह बात कहने में कोई अतिश्योक्ति नही होगी.
अन्ना हज़ारे को साकारत्मक ही कवरेज?
कहते हैं कि मीडिया का कर्तव्य होता कि हर एक घटना को एक संचार माध्यम के रूप में लोगो तक पहुंचाए, उसमें संदेह हर घटना पर करे और हर घटना को एक समर्थक की तरहं नही बल्कि संचार माध्यम की तरहं निभाए. जहा तक वीडियो को देखा जाए तो अधिकतर वीडियो को अगर कोई अपरिचित व्यक्ति देखे तो उसकी सोच सिर्फ़ अन्ना हज़ारे जी का आन्दोलन जो अब देश का आन्दोलन बन चुका है बिना समझे सबसे ऊपर लगने लगेगा.. आईबीएन७ पर वीडियो देखने पर साफ़ झलकता है कि अन्ना हज़ारे द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को टीवी मीडिया ने साकारात्मक कवरेज दी है या यह कहना ठीक होगा की एक तरफ़ा कवरेज दी है. लेकिन इरोम, जो पिछले ग्यारहा वर्षो से अनशन कर समाज के लिय अन्ना की तरह वो भी लड रही है पर आईबीएन७ के पास उनको कवरेज करने का समय नही निकला? "इएनम" नाम से एक एजंसी की तीन अप्रेल से ग्यारह अप्रेल तक अन्ना की कवरेज पर टेलीवीजन मोनिटरिंघ रिपोर्ट पर नजर डाले तो पता चलता है कि अन्ना उस दौरान एक टेलीवीजन मीडिया के लिय एक ब्राण्ड बन गये थे. यहा तक कि बिसनिस चेनल्स जो समाजिक मुद्दो से अकसर दूर रहते हैं ज़ी, ब्लूम्बर्ग, और नेटवर्क१८ का ही सीनबीसी और सीनबीसी आवाज़ ने भी अन्ना की कवरे करने में कोई देर नही की. रिपोर्ट के अकडे बताते है कि उस दौरान अन्ना को ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक कवरेज मिली फ़िर चाहे वो वो आईबीएन की कवरेज हों या किसी चेनल की. उस दौरान टोन के आधार पर कुल ६५ नाकारात्मक क्लिप रिकोर्ड में आईं और इसके मुकाबले कुल ५५९२ साकारात्मक क्लिप्स रिकोर्ड में आई. उस दौरान या उससे पहले भी अगर देखा जाये तो मीडिया ने इरोम के नेत्रत्व में चल रहे समाजिक आन्दोलन को इतनी रूची के साथ नही लिया. यहा भी साफ़ हो जाता है कि साफ़ मीडिया ने अपने उद्देश्य से भटकते हुये एक तरफ़ा कवरेज की.
निष्कर्ष:
हमने जहां तक देखा यही पाया कि मीडिया आज लोकतंत्र के हित के लिये कम बल्कि अपने हित को सोच ज्यादा काम करती है. मीडिया के व्यवसायिकरण ने प्रतियोगिता को और इस प्रतियोगिता ने पत्रकारिता को अपनी सही राह से भटकाया. आज टीवी मीडिया के लिए टीआरपी सबसे बढकर है. अन्ना पर ध्यान मीडिया इसलिय भी दे रही थी और दे रही है क्योंकी वे कहीं न कहीं समझ चुकी थी कि जब समाज के हर कोने से हर व्यक्ति अन्ना के आन्दोलन से जुडता जा रहा है तो अन्ना की कवरेवज टीवी पर भी बडी दिल चस्पी से देखेगा ही. एक बात इरोम और अन्ना की कवरेज में अंतर का एक बडा कारण दीख रही है कि मीडिया अगर मणिपुर जाती तो उसकी लागत बढ जाती और मीडिया इतना खर्च ज्यादा दिनो तक कैसे वहन करती यह बात भी हमारे आज के मीडिया चेनलो को सता रही थी. जब अन्ना खुद मीडिया के घर यानी दिल्ली चले आये और यहां से अपने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज बुलंद की तो मीडिया के लिए इससे बडी बात क्या होती. खासकर उस आज की मीडिया के लिए जिसे टीआरपी के आगे कुछ नही दिखता. दूसरे पहलू से अगर देखें तो पता चलता है कि मीडिया वहीं जाती है जहां विवाद जुडा हो या वहां से कोई विवाद शुरू होता हो. तो कहा जा सकता है कि अन्ना द्वारा चलाया जा रहा समाजिक आन्दोलन सीधे तौर पर राजनैतिक सत्ता से लडाई है. जिसमें हर पल विवाद उठना लाज़मी है.
आईबीएन७ की वीडियो देखने पर एक बाजार की रणनीति साफ़ तौर से दिखाई देती है. लोग अन्ना को दूसरा गांधी के रूप बेहद पसंद कर रहे थे या हैं क्योंकि जिसने गांधी विचारो को नही देखा और जिसको गांधी जी को देखना था वो तो एक मिनट ही सही अन्ना को या अन्ना से जुडी किसी कवरेज को देखना जरूर चाहेगा.. उस दौरान आईबीएन७ ने इस बात की रट लगा ली थी अन्ना या देश का दूसरा गांधी हमारे स्टूडियो में.. या हमारे साथ आईबीएन७ पर हैं या कुछ नही तो लगभग आईबीएन७ भी और सभी चेनलो को किसी खबर में अन्ना के रूप में गाधी की रट लगाना पसंद आ रहा था. आईबीएन७ के एक रिपोर्टर गांधी कहने पर अन्ना ने साफ़ कह दिया कि वह गांधी नही बल्कि उनके विचारो से प्रभावित हुं. पर इस बात की आईबीएन७ ने रट नही लगाई. अंत में यही कहा जा सकता है कि मीडिया चेनल द्वारा एक तरफ़ा कवरेज की गयी.
[i] जानकारियों के श्रोत-
प्रभाष जोशी-६०,
"मीडिया के सरोकार" - अच्युतानंद मिश्र
यूट्यूब.कोम,
Wikipedia,
लेख-"क्या जन विरोधी है मीडिया" (जस्टिस मार्कंडेय काटजू, अध्यक्ष, प्रेस काऊंसिल ओफ़ इंडिया)
www.bhadas4media.com
लेख- "मीडिया और दो आन्दोलनो की दास्तान" (लेखक- सीनएन आईअबीएन के सीईओ-
राजदीप सरदेशाई)
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