Saturday, November 15, 2014

ग्रामीण विकास का अधूरापन


19 फरवरी सन 1900 को जन्में बलवंत राय मेहता ने अपनी आखरी सांस 19 सितंबर 1965 को ली थी। 1965 में पाकिस्तान-भारत के युद्ध के दौरान करीब तीन हजार किलोमीटर की ऊंचाई पर उड़ रहे जिस भारतीय विमान पर पाकिस्तान की ओर से हमला किया गया उसमें गुजरात के तत्कालानी मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता भी थे। तब मानों उनके साथ ही ग्रामीण विकास का सपना
भी दम तोड़ गया था। जिसका स्पष्ट उदाहरण है कि 21वीं सदी के इस दौर में भी ग्रामीण विकास का सपना अधूरा सा है।
ग्रामीण क्षेत्रों तक सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे बिना किसी रुकावट के पहुंच जाए इसके लिए 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में समिति गठित समिति ने जो सिफारिशों के आधार पर ग्राम पंचायत व्यवस्था लागू की। वह ये सोचकर लागू हुई की समाज कल्याण से जुड़ी विभिन्न योजनाओं के तहत जारी वित्तीय सहायता सही तरीके से इस्तेमाल हो पाए और लाभ जरूरतमंद तक पहुंच पाए। लेकिन फिर भी व्यवस्था चरमरा रही है। 

वर्तमान परिदृश्य में ग्रामीण क्षेत्र में रोजागार के साधन नहीं हैं, शिक्षा नहीं है। इसके अलावा कृषि आधारित गांवों का विकास नहीं हो पाया। अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, जलापूर्ति में कमी, बिजली संकट का दंश ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग अब तक झेल रहे हैं।

आइए ग्राम पंचायत की ऊपरी तौर पर दिखाई दे रहीं खामियों पर नजर डाल लेते हैं। उदाहरण के तौर पर ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को ही ले लीजिए। वर्तमान में इसके तहत बेरोजगारी मिटाने के लिए सौ दिन का रोजगार दिया जाना अनिवार्य है।

ग्रामीण क्षेत्रों में इस योजना का लाभ जरूरतमंद तक ग्राम पंचायत के जरिए पहुंचाया जाता है। इसका जिम्मा ग्राम पंचायत के ही हाथ में है कि वह जरूरतमंद की पहचान करे और योजना का लाभ उस तक पहुंचाए। लेकिन थोड़ी गहराई से पड़ताल करें तो हो पता चल जाएगा कि सभी कुछ विपरीत घट रहा है। नरेगा में गरीब ग्रामीणों को सौ दिन के रोजगार के रूप में जो पैसा मिलना था उसकी बंदर बांट मची है।
गौरतलब है कि 2 सितंबर, 1959 के दिन बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के बाद सबसे पहले देश में राजस्थान राज्य में ही ग्राम पंचायत समिति का उद्घाटन किया गया था। इसलिए वहीं का एक उदाहरण पूरी तस्वीर को साफ करने के लिए काफी है।
हाल ही 20 अप्रेल-2014 को सीआईडी एसएचओ, हेडमास्टर भी नरेगा में मजदूर शीर्षक से दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार में इस बात का खुलासा हुआ कि ग्राम पंचायत के तहत हुए घोटाले में पुलिस अधिकारी शिक्षक से लेकर वनाधिकारियों के भी जॉब कार्ड बना दिए गए। यानी जिन गरीब बेरोजगारों को मेहनताना मिलना चाहिए था उनको नहीं मिल पाया।

खैर यह तो उदाहरण भर है। इससे कहीं ज्यादा आए दिन नरेगा से जुड़ी पोल पट्टियां लगातार खुल रही हैं। इसका एक कारण ग्राम पंचायत के काम-काज में पारदर्शिता बनाए रखने के के लिए कोई विशेष पहल नहीं होना है।
इसी वजह से विकेंद्रीकरण कर पंचायत समिति व्यवस्था की आलोचना हो रही है।

इस पर कई लोग इस तरह की पंचायतराज व्यवस्था को समाप्त करने की हिमायती करते भी देखे जा सकते हैं। लेकिन इस ओर सोचने की जरूरत है कि व्यवस्था लागू करना, फिर असफल होने पर उसको खत्म करके कोई दूसरी व्यवस्था या योजना लागू करने में ही सरकारी तंत्रों की ऊर्जा खपाना कहां तक जायज है।
दरअसल, आजादी के बाद महात्मा गांधी ने ग्रामीण क्षेत्र में विकास के लिए पंचायतराज व्यवस्था की ओर जोर दिया था। महात्मा गांधी की जोर आजमाइश पर 2 अक्टूबर, 1952  को समुदायिक विकास कार्यक्रम चलाए गए। इन कार्यक्रम से परिणाम नहीं आने पर इसे समाप्त कर दिया। फिर, इसके स्थान पर 1953 में राष्ट्रीय प्रसार सेवा को प्रारंभ किया गया।

लेकिन इससे भी ग्रामीण विकास की गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई। जिसके बाद 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में गठित की गई ग्रामोद्धार समिति की ओर से दी गईं सिफारिशों को लागू करते हुए पंचायत समितियों बनाई गईं थीं। अब अगर इसे भी समाप्त करने की ओर बढ़ा जाए तो यह व्यवहारिक रूप से सही नहीं होगा।
इसलिए जरूरत इस बात की नहीं कि ग्रामीण विकास से जुड़ीं व्यवस्थाएं व स्थापित प्रणालियां या कहें योजनाएं असफल हो गई हैं तो उन्हें समाप्त कर दिया जाए। जरूरत तो बल्कि इस बात की ओर गहराई से सोचने और अमल में लाने की है कि यह ग्रामीण विकास के लक्ष्य को पाने के लिए प्रणालियां या व्यवस्थाओं की असफलताओं की असल वजह क्या है।

इसी तरह पंचायततराज व्यवस्था के तहत गठित पंचायत समितियों में भ्रष्टाचार से जुड़ी जो खामियां निकल कर आ रही हैं उनको दूर करे बिना जरूरतमंद तक लाभ नहीं पहुंचया जा सकता। यह समस्या तभी पूरी तरह से दूर हो सकती है जब कड़ी निगरानी के तहत काम-काज का निपटारा हो पाए।
 
    
वैसे ग्रामीण विकास के लक्ष्य तक न पहुंच पाने में मुख्य तौर पर दो समस्याएं काम कर रही हैं। एक, पारदर्शिता न होना, दूसरी, पंचायत समितियों के जरिए किए जा रहे विकास कार्यों की निगरानी के लिए गठित की गई जिला ग्रामीण विकास एजेंसी के तहत नियुक्त सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की काम करने व वित्तीय लेखे जोखे की निगरानी करने के लिए इच्छा शक्ति में कमी।

वहीं ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य कल्याण के लिए प्रमुखता से कदम उठाए जाने की दरकार है। हालांकि मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने के लिए संयुक्त परीक्षा पास कर डॉक्टर की डिग्री हासिल करने वाले युवा चिकित्सकों को ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सकीय सेवा देना अनिवार्य कर देना एक अच्छी पहल कही जा सकती है। लेकिन इससे ज्यादा और भी प्रयास होने चाहिए। क्योंकि गांवों में जाकर सेवा करने के लिए युवाओं अंदर इच्छा शक्ति की कमी इस तरह के प्रयासों पर पानी फेर सकती है।
ग्रामीण विकास में सहयोग करने के लिए भावी पीढ़ी भी रुचि नहीं दिखा रही है। जिस तेजी से सरकार का ध्यान और विकास कार्य ग्रामीण क्षेत्रों से दूर होते चले गए उतनी ही तेजी से हमारी युवा पौध में ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति लगाव लगातार घटा है। इसको गहराई से समझने के लिए ज्यादा गहराई में नहीं जाउंगा। अभी हाल की एक खबर ले लीजिए।

6 सितंबर-2014 को राष्ट्रीय अखबार राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित समाचार में बताया गया कि मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले कई छात्रों ने मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लेने से इस आधार पर मना कर दिया कि उन्हें कोर्स पूरा करने के बाद अनिवार्य रूप से बतौर डॉक्टर सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा करनी पड़ेगी। इन छात्रों ने बेंगलोर मेडिकल कॉलेज एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट में दाखिला ले लिया। दरअसल, इन छात्रों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि कर्नाटक राज्य में केंद्रीय स्तर पर लागू ग्रामीण क्षेत्र में सेवा करने वाली शर्त कर्नाटक राज्य के इस कॉलेज में लागू नहीं होती।  

पारदर्शिता और पंचायत स्तर की निगरानी कर भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के अलावा ग्रामीण विकास को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए युवाओं में रुचि जगाने के कार्यक्रम भी चलाने की पहल होनी चाहिए। क्योंकि स्वास्थ्य सेवा ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पा रही है। अगर चिकित्सा व शिक्षा के क्षेत्र में आने वाले नए युवाओं को इस ओर प्रेरित किया जाए तो इससे भी काफी हद तक ग्रामीण विकास के लक्ष्य पाने के रास्ते खुल सकते हैं। 

(दिल्ली से 'पंचायत संदेश' पत्रिका के अंक में प्रकाशित लेख। राजस्थान में पत्रकारिता के दौरान ग्रामीण विकास के बारे में उभरी मेरी समझ के दो साल बाद पंचायतराज व्यवस्था जैसे गंभीर मुद्दे पर अपनी कलम को चला पाया हूं। आलोचनाओं और सुझावों का सम्मान के साथ स्वागत)