Saturday, November 15, 2014

ग्रामीण विकास का अधूरापन


19 फरवरी सन 1900 को जन्में बलवंत राय मेहता ने अपनी आखरी सांस 19 सितंबर 1965 को ली थी। 1965 में पाकिस्तान-भारत के युद्ध के दौरान करीब तीन हजार किलोमीटर की ऊंचाई पर उड़ रहे जिस भारतीय विमान पर पाकिस्तान की ओर से हमला किया गया उसमें गुजरात के तत्कालानी मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता भी थे। तब मानों उनके साथ ही ग्रामीण विकास का सपना
भी दम तोड़ गया था। जिसका स्पष्ट उदाहरण है कि 21वीं सदी के इस दौर में भी ग्रामीण विकास का सपना अधूरा सा है।
ग्रामीण क्षेत्रों तक सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे बिना किसी रुकावट के पहुंच जाए इसके लिए 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में समिति गठित समिति ने जो सिफारिशों के आधार पर ग्राम पंचायत व्यवस्था लागू की। वह ये सोचकर लागू हुई की समाज कल्याण से जुड़ी विभिन्न योजनाओं के तहत जारी वित्तीय सहायता सही तरीके से इस्तेमाल हो पाए और लाभ जरूरतमंद तक पहुंच पाए। लेकिन फिर भी व्यवस्था चरमरा रही है। 

वर्तमान परिदृश्य में ग्रामीण क्षेत्र में रोजागार के साधन नहीं हैं, शिक्षा नहीं है। इसके अलावा कृषि आधारित गांवों का विकास नहीं हो पाया। अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, जलापूर्ति में कमी, बिजली संकट का दंश ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग अब तक झेल रहे हैं।

आइए ग्राम पंचायत की ऊपरी तौर पर दिखाई दे रहीं खामियों पर नजर डाल लेते हैं। उदाहरण के तौर पर ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को ही ले लीजिए। वर्तमान में इसके तहत बेरोजगारी मिटाने के लिए सौ दिन का रोजगार दिया जाना अनिवार्य है।

ग्रामीण क्षेत्रों में इस योजना का लाभ जरूरतमंद तक ग्राम पंचायत के जरिए पहुंचाया जाता है। इसका जिम्मा ग्राम पंचायत के ही हाथ में है कि वह जरूरतमंद की पहचान करे और योजना का लाभ उस तक पहुंचाए। लेकिन थोड़ी गहराई से पड़ताल करें तो हो पता चल जाएगा कि सभी कुछ विपरीत घट रहा है। नरेगा में गरीब ग्रामीणों को सौ दिन के रोजगार के रूप में जो पैसा मिलना था उसकी बंदर बांट मची है।
गौरतलब है कि 2 सितंबर, 1959 के दिन बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के बाद सबसे पहले देश में राजस्थान राज्य में ही ग्राम पंचायत समिति का उद्घाटन किया गया था। इसलिए वहीं का एक उदाहरण पूरी तस्वीर को साफ करने के लिए काफी है।
हाल ही 20 अप्रेल-2014 को सीआईडी एसएचओ, हेडमास्टर भी नरेगा में मजदूर शीर्षक से दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार में इस बात का खुलासा हुआ कि ग्राम पंचायत के तहत हुए घोटाले में पुलिस अधिकारी शिक्षक से लेकर वनाधिकारियों के भी जॉब कार्ड बना दिए गए। यानी जिन गरीब बेरोजगारों को मेहनताना मिलना चाहिए था उनको नहीं मिल पाया।

खैर यह तो उदाहरण भर है। इससे कहीं ज्यादा आए दिन नरेगा से जुड़ी पोल पट्टियां लगातार खुल रही हैं। इसका एक कारण ग्राम पंचायत के काम-काज में पारदर्शिता बनाए रखने के के लिए कोई विशेष पहल नहीं होना है।
इसी वजह से विकेंद्रीकरण कर पंचायत समिति व्यवस्था की आलोचना हो रही है।

इस पर कई लोग इस तरह की पंचायतराज व्यवस्था को समाप्त करने की हिमायती करते भी देखे जा सकते हैं। लेकिन इस ओर सोचने की जरूरत है कि व्यवस्था लागू करना, फिर असफल होने पर उसको खत्म करके कोई दूसरी व्यवस्था या योजना लागू करने में ही सरकारी तंत्रों की ऊर्जा खपाना कहां तक जायज है।
दरअसल, आजादी के बाद महात्मा गांधी ने ग्रामीण क्षेत्र में विकास के लिए पंचायतराज व्यवस्था की ओर जोर दिया था। महात्मा गांधी की जोर आजमाइश पर 2 अक्टूबर, 1952  को समुदायिक विकास कार्यक्रम चलाए गए। इन कार्यक्रम से परिणाम नहीं आने पर इसे समाप्त कर दिया। फिर, इसके स्थान पर 1953 में राष्ट्रीय प्रसार सेवा को प्रारंभ किया गया।

लेकिन इससे भी ग्रामीण विकास की गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई। जिसके बाद 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में गठित की गई ग्रामोद्धार समिति की ओर से दी गईं सिफारिशों को लागू करते हुए पंचायत समितियों बनाई गईं थीं। अब अगर इसे भी समाप्त करने की ओर बढ़ा जाए तो यह व्यवहारिक रूप से सही नहीं होगा।
इसलिए जरूरत इस बात की नहीं कि ग्रामीण विकास से जुड़ीं व्यवस्थाएं व स्थापित प्रणालियां या कहें योजनाएं असफल हो गई हैं तो उन्हें समाप्त कर दिया जाए। जरूरत तो बल्कि इस बात की ओर गहराई से सोचने और अमल में लाने की है कि यह ग्रामीण विकास के लक्ष्य को पाने के लिए प्रणालियां या व्यवस्थाओं की असफलताओं की असल वजह क्या है।

इसी तरह पंचायततराज व्यवस्था के तहत गठित पंचायत समितियों में भ्रष्टाचार से जुड़ी जो खामियां निकल कर आ रही हैं उनको दूर करे बिना जरूरतमंद तक लाभ नहीं पहुंचया जा सकता। यह समस्या तभी पूरी तरह से दूर हो सकती है जब कड़ी निगरानी के तहत काम-काज का निपटारा हो पाए।
 
    
वैसे ग्रामीण विकास के लक्ष्य तक न पहुंच पाने में मुख्य तौर पर दो समस्याएं काम कर रही हैं। एक, पारदर्शिता न होना, दूसरी, पंचायत समितियों के जरिए किए जा रहे विकास कार्यों की निगरानी के लिए गठित की गई जिला ग्रामीण विकास एजेंसी के तहत नियुक्त सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की काम करने व वित्तीय लेखे जोखे की निगरानी करने के लिए इच्छा शक्ति में कमी।

वहीं ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य कल्याण के लिए प्रमुखता से कदम उठाए जाने की दरकार है। हालांकि मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने के लिए संयुक्त परीक्षा पास कर डॉक्टर की डिग्री हासिल करने वाले युवा चिकित्सकों को ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सकीय सेवा देना अनिवार्य कर देना एक अच्छी पहल कही जा सकती है। लेकिन इससे ज्यादा और भी प्रयास होने चाहिए। क्योंकि गांवों में जाकर सेवा करने के लिए युवाओं अंदर इच्छा शक्ति की कमी इस तरह के प्रयासों पर पानी फेर सकती है।
ग्रामीण विकास में सहयोग करने के लिए भावी पीढ़ी भी रुचि नहीं दिखा रही है। जिस तेजी से सरकार का ध्यान और विकास कार्य ग्रामीण क्षेत्रों से दूर होते चले गए उतनी ही तेजी से हमारी युवा पौध में ग्रामीण क्षेत्रों के प्रति लगाव लगातार घटा है। इसको गहराई से समझने के लिए ज्यादा गहराई में नहीं जाउंगा। अभी हाल की एक खबर ले लीजिए।

6 सितंबर-2014 को राष्ट्रीय अखबार राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित समाचार में बताया गया कि मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले कई छात्रों ने मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लेने से इस आधार पर मना कर दिया कि उन्हें कोर्स पूरा करने के बाद अनिवार्य रूप से बतौर डॉक्टर सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा करनी पड़ेगी। इन छात्रों ने बेंगलोर मेडिकल कॉलेज एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट में दाखिला ले लिया। दरअसल, इन छात्रों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि कर्नाटक राज्य में केंद्रीय स्तर पर लागू ग्रामीण क्षेत्र में सेवा करने वाली शर्त कर्नाटक राज्य के इस कॉलेज में लागू नहीं होती।  

पारदर्शिता और पंचायत स्तर की निगरानी कर भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के अलावा ग्रामीण विकास को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए युवाओं में रुचि जगाने के कार्यक्रम भी चलाने की पहल होनी चाहिए। क्योंकि स्वास्थ्य सेवा ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पा रही है। अगर चिकित्सा व शिक्षा के क्षेत्र में आने वाले नए युवाओं को इस ओर प्रेरित किया जाए तो इससे भी काफी हद तक ग्रामीण विकास के लक्ष्य पाने के रास्ते खुल सकते हैं। 

(दिल्ली से 'पंचायत संदेश' पत्रिका के अंक में प्रकाशित लेख। राजस्थान में पत्रकारिता के दौरान ग्रामीण विकास के बारे में उभरी मेरी समझ के दो साल बाद पंचायतराज व्यवस्था जैसे गंभीर मुद्दे पर अपनी कलम को चला पाया हूं। आलोचनाओं और सुझावों का सम्मान के साथ स्वागत)

Thursday, September 11, 2014

अंडरवर्ल्डः क्या फिर लौट रहा है मुंबई गैंगवार


वर्ष 2011 में 11 जून के दिन एक वरिष्ठ पत्रकार जे डे की सरेराह हत्या। यह बात किसी से छुपी नहीं कि इस हत्याकांड के तार अंडरवर्ल्ड से जुड़े थे। वर्तमान की प्रष्ठभूमि पर नजर डालें तो अब फिल्म प्रोड्यूसर करीम मोरानी को मारने की कोशिश, फिर अभिनेता शाहरुख खान को धमकी अब एक पत्रकार की सुपारी। क्या संकेत देता है। इसका साफ संकेत यह है कि फिर से दाउद के गुर्गे, छोटे और मोटे डॉन अपना आतंक फिर से फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे सबसे पहला सवाल तो यही उठ रहा है कि क्या मुंबई फिर गैंगवार की ओर बढ़ रही है। ऐसा गैंगवार जो साठ के दशक में हुआ।


दाउद इब्राहिम जब अपनी युवा अवस्था में था तो हाजी मस्तान, लाला, छोटा राजन, रामपुरिया गैंग, इलाहबादी गैंग, मद्रासी गैंग में जो खूनमखान मचा। मुंबई पुलिस भी रोक पाने में असमर्थ थी। एक-एक कर व्यापारी औऱ फिल्मी जगत से जुड़े लोगों की हत्या की जा रही थीं। दरअसल, हत्या उनकी की जा रही थी जो गैंगस्टर्स को महीने की बंधियां यानी मोटी रकम नहीं पहुंचा रहे थे या जिन्होंने रकम देने से मना कर दिया था।

हुसैन जैदी की किताब डोंगरी टू दुबई में दी गई एक जानकारी ने इस ओर इशारा किया है कि उस समय कई गैंगस्टर्स चोरी-छिपे फिल्मों में पैसा लगाया करते थे। गुल्शन कुमार की सरेआम हत्या कर देना इसी का ही नतीजा था। वहीं उस दौर में कई व्यापारियों को भी धमकियां मिलती थीं जो अकसर फिल्मों में पैसा लगाया करते थे या फिल्मी जगत से जुड़े थे। यही नहीं, अभिनेता संजय दत्त के तार दाउद इब्राहिम के साथ जुड़े होने के कई मामले जो अब तक सामने आए। उसको भी थोड़े अलग नजरिए से देखने की जरूरत है।

अंडरवर्ल्ड का खात्मा तो गैंगवार खत्म
अंडरवर्ल्ड के गुर्गे बड़े व्यापारियों से वसूली करते। बड़े व्यापारी अपना टैक्स बेशक न चुकाते लेकिन अंडरवर्ल्ड की वसूली जरूर चुकाते। इसमें पुलिस वालों की भी शह रहती। यह सब 60 के दशक का समय था। जब अंडरवर्ल्ड का पूरा खाका तैयार हो रहा था और काले धन को सुरक्षित रखने के रास्ते खुल रहे थे। लाला, पठान औऱ उसके बाद दाउद इब्राहिम का फलना फूलना। हवाला कारोबार, तस्करी जैसे कारनामों का जन्म तभी हुआ था। हवाला कारोबार तो अंडरवर्ल्ड की आड़ में इतना फला फूला कि तब से लेकर आ जक न ही इस पर रोक लग पाई और न ही कभी यह पता चल पाया कि सफेद पौशाक, अंडरवर्ल्ड का भारत में मौजूद शातिर औऱ खाकी वर्दी में चुपके अपना काम कर जाने वाले वह शक्तिशाली लोग कौन हैं।
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वनइंडिया में प्रकाशित। 

सांस्कृतिक दूरियों को उजागर करती यह फिल्म

(टू स्टेट्स)

 पांच में से चार स्टार


एक राज्य के लोग दूसरे राज्य से आने वाले लोगों से नफरत करने लगे हैंकोई साउथ से आता है तो मेट्रो सिटी में रहने वाले लोगोंको चिढ़ होती हैबिहार से आता है तो उससे सीधे से बात करने से पहले ही बिहारी कह-कहकर जलील किया जाता है। उत्तर-प्रदेश से महाराष्ट्र में जाने वाले कई लोगों को इसी अजीब सी स्थिति से गुजरना पड़ता है। इससे एक अलग-अलग राज्यों की संस्कृतियों के बीच की दूरी एक बड़ी खाई में दब्दील हो रही है। शायद यह इसलिए भी है क्योंकि वर्तमान के प्रतियोगी दौर से अंधाधुंध गुजर रहे समाज को एक दूसरे से बात करने तक की फुरसत नहीं है। 

लोग अपने पड़ोस में ही रहने वाले लोगों से बात नहीं करतेदूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को तो समझना दूर है। यहां तक कि इस भाग रहे जीवन में अपने परिवार के सदस्यों को भी समय नहीं दे पा रहे हैं जिससे आपसी मेल-मिलाप व एक दूसरे को समझने की क्षमता घट रही है। 

 अभिषेक वर्मन द्वारा निर्देशित फिल्म स्टे्टस देखीजिसमें देश में सांस्कृतिक समझ के कम होते रहने से उपज रही सांस्कृतिक दूरियां दिखाई गई है। अभिनेता अर्जुन कपूर ने मेट्रो सिटी में रहने वाले अपने ही कल्चर के दायरे में सिमटे परिवार के बेटे की भूमिका बखूबी निभाई है वहीं अलिया भट्ट दक्षिण भारतीय उच्च शिक्षित व विभिन्न संस्कृतियों से अनभिज्ञ रहने वाले परिवार की बेटी के रूप में नजर आईं। कहानी की शुरूआत वाकई व्यवहारिक लगती है। 

अर्जुन कपूर व अलिया भट्ट आईआईएम अहमदाबाद में एमबीए करने के दौरान मिलते है। वहां दोनों को प्यार होता हैदोनो शादी करना चाहते हैंदोनों अपने-अपने माता-पिता को मिलवाना चाहते हैं लेकिन पहली मुलाकात में दोनों के परिवार एक दूसरे की संस्कृतियों को न समझते हुए हिचकते हुए बात ही नहीं कर पाते। जिसके बाद दोनों के परिवार के मन में पूर्वाग्रह जन्म लेता है। 

वहीं एक तरफ क्रिष (अर्जुन कपूर) की मां (अर्मिता सिंह) दहेज के रूप में अपनी महत्वकांशा पूरी करने का ख्वाब भी सजा लेती हैं और इन सब के बीच क्रिष (अर्जुन कपूर) के पियक्कड़ पिता का किरदार अदा कर रहे रोनित रॉय भी अपने बेटे की भावनाओं को नहीं समझ पाते हैं।
 इसी तरह अनन्या (अलिया भट्ट) अपने माता-पिता को मनाने की कोशिश करती है लेकिन पिता (शिवकुमार) व मां (राधा स्वामिनाथन) पूर्वाग्रह में उलझे रहते हैं और अपनी बेटी की भावनाओं को समझ नहीं पाते। कोशिश करने के बावजूद कुछ नहीं हो पातारिश्ता टूट जाता है। 

हालाकि वास्तविक जीवन से हटकर फिल्म का अंत सुखद दिखाया गया। दोनो परिवार एक दूसरे की संस्कृति को जनते हैं और बातचीत कर सांस्कृतिक दूरियां मिटा लेते हैं। देश का समाज प्रतियिगता के चक्कर में अलग-थलग पड़ता जा रहा है। फिल्म की तरह सुखद रिश्ते स्थापित करने के लिए समाज के हर वर्ग को एक दूसरे सांस्कृति को मान देना होगा।

Thursday, August 28, 2014

अंडरवर्ल्ड की शह और कालाधन

हुसैन ज़ैदी की किताब, किताब का नाम मुंबई अंडरवर्ल्ड के छह दशक- 'डोंगरी टू दुबई' तो पढ़ी ही होगी। बेशक हो सकता है कि नहीं पढ़ी हो, लेकिन सरकार में बैठे अंडरवर्ल्ड के जानकार, तमाम आईपीएस अफसर पद पर पहुंचते ही यह किताब तो जरूर पढ़ते हैं। यह एक ऐसा दस्तावेज है जिसकी एक-एक कड़ी को जोड़कर देखा जाए तो अंडरवर्ल्ड से होते हुए कालेधन तक पहुंचा जा सकता है। सही मायने में यह समझने की जरूरत है कि कालाधन का काला कारोबार बिना
अंडरवर्ल्ड की शह के नहीं चल सकता या यह भी कह सकते हैं कि बिना किसी गॉड फादर के नहीं चल सकता। यानी कोई तो है। यह तीन हो सकते हैं। एक अंडरवर्ल्ड में बैठा कोई शातिर और दूसरा सफेद पौशाक के पीछे छिपा शैतान और तीसरा, पुलिस की वर्दी की आड़ में चुपके से अपना काम कर जाने वाला कोई शक्तिशाली शख्स। अगर इन तीन आकाओं तक पहुंचा जाए काला धन, हवाला कारोबार और सोने-चांदी वगैरहा की तस्करी का चक्रव्यूह टूट सकता है।

डोंगरी टू दुबई किताब में बड़ा ही अच्छा विवरण है कि कैसे अंडरवर्ल्ड के गुर्गे बड़े व्यापारियों से वसूली करते। बड़े व्यापारी अपना टैक्स बेशक न चुकाते लेकिन अंडरवर्ल्ड की वसूली जरूर चुकाते। इसमें पुलिस वालों की भी शह रहती। यह सब 60 के दशक का समय था। जब अंडरवर्ल्ड का पूरा खाका तैयार हो रहा था और काले धन को सुरक्षित रखने के रास्ते खुल रहे थे। 
लाला, पठान औऱ उसके बाद दाउद इब्राहिम का फलना फूलना। हवाला कारोबार, तस्करी जैसे कारनामों का जन्म तभी हुआ था। हवाला कारोबार तो अंडरवर्ल्ड की आड़ में इतना फला फूला कि तब से लेकर आज तक न ही इस पर रोक लग पाई और न ही कभी यह पता चल पाया कि सफेद पौशाक, अंडरवर्ल्ड का भारत में मौजूद शातिर औऱ खाकी वर्दी में चुपके अपना काम कर जाने वाले वह शक्तिशाली लोग कौन हैं।
दरअसल, अगर देश की सुरक्षा एजंसियां इन तक पहुंचना ही चाहती हैं तो एक-एक कर फूंक-फूंक कर कदम उठाने होंगे। एक विंग ऐसी हो जिसकी सूचना प्रधानमंत्री को भी न हो। उसको सिर्फ राष्ट्रपति को रिपोर्ट करने के अधिकार हो। जिसके एक-एक कदम की थोड़ी सी भी भनक खूफिया एजंसी के प्रमुख तक कभी पहुंचे ही न। ऐसी विंग के सभी सदस्य गत बचपन, फैमिली औऱ व्यवहार का सही तरीके से अध्ययन करने के बाद ही नियुक्त किए जाएं। ऐसी किसी को जानकारी भी न दी जाए कि ऐसे कोई सदस्य नियुक्त भी हुए हैं य नहीं।

विशेष गुप्त विंग के तीन सदस्य इसमें से एक को राज्य सभा सदस्य बनाकर किसी तरह संसद तक पहुंचा दिया जाए। जो सफेद पोशाक के पीछे छिपे शैतान तक तक पहुंच सके। औऱ धीरे-धीरे सारी सूचनाए एकत्र करे। चाहे इसमें पांच साल लग जाएं।
एक की छवि भारतीय बाजार में करोड़पति और बड़े बिजनेसमैन की तरह बना दी जाए। ऐसी छवि जिससे बड़े-बड़े अभिनेताओं और अभिनेत्रियों से लेकर अंबानी, टाटा जैसे बड़े अमीर घरानों तक को मेल मिलाप करने से गर्व सा महसूस हो। यह छवि ऐसी हो कि अभिनेताओं और अभिनेत्रियों से लेकर अंबानी, टाटा जैसे बड़े अमीर घरानों के यहां आना-जाना आम हो और पार्टियों का कोई निमंत्रण न छूट पाए।

तीसरा शख्स ऐसा होना चाहिए कि, उसे देश की सुरक्षा एजंसी या पुलिस सर्विस के मुखिया वाला पद दिलाया जाए या फिर देश की सुरक्षा स्तर के प्रमुख की बराबर सारे अधिकार और शक्तियां उसके पास हों। यह तीसरा शख्स सुरक्षा एजंसियों और पुलिस सर्विस में बैठे ऐसे शक्तिशाली शख्त तक पहुंचने का काम करे जो काला धन, हवाला कारोबार औऱ अंडरवर्ल्ड से सम्पर्क रखता है। इसकी जानकारी सिर्फ और सिर्फ गुप्त दस्तावेज औऱ कोडवर्ड में ही हो। जिससे कोई दस्तावेज चुरा भी ले तो उस कोडवर्ड को तोड़ न पाए।
 मुंबई के एक दैनिक अख़बार- मुंबई टॉक में 21 अगस्त-2014 को प्रकाशित लेख

Thursday, May 15, 2014

हमारी भी सुने कोई



 देश में किसानों की उपेक्षा हो रही है, इसका उदाहरण है कि जोधपुर के खेतासर गांव में किसानों के लिए खेती करना मुश्किल का सबब है। खेतासर के गांव की मिट्टी से सीधे रिपोर्ट:




पानी नहीं है, जो है वो भी खारा, बहुत खारा। जमीन में रेत है, खतरनाक रेत के कीट हैं फसल होने नहीं देते, थोड़ी बहुत हो भी गई तो नुकसान भोगना पड़ता है, फिर भी खेती करनी पड़ती है क्योंकि कोई और चारा भी नहीं। राजस्थान के जोधपुर के खेतासर गांव में किसान इसी मजबूरी में 
जी रहा है।
खेत में जूझते किसान, जोधपुर के गांव खेतासर गांव के खेत का दृश्य
  खेतासर के किसान जमीन होने के बावजूद भी उसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। अत्यधिक खारा पानी, रेतीली जमीन व अधिक तापमान की वजह से खेती करना खेतासर के किसानों के लिए मुश्किल हो गया है। धीरे-धीरे जमीन की उर्वरकता घट रही है और पनी नहीं होने की वजह से नमी भी।


करीब 1500 घरों के जोधपुर के खेतासर में किसान परिवार रहते हैं। गांव के एक बुजुर्ग किसान काकाकहते हैं कि सभी की सुनती है सरकार, लेकिन हमारी नहीं। अधिकारी भी समझाने नहीं आते कि अच्छी खेती कैसे हो। काका बताते हैं कि
Kaka, Farmer, Khetasar, Jodhpur
15-20 वर्ष पहले 200-300 फीट पर पानी निकल आता था जो अब नहीं निकलता। 


खारा पानी तक निकालने के लिए करीब 600 फीट की खुदाई (बोर) करना पड़ता है तब जाकर पानी देखने को मिलता है। पीते भी वही पानी हैं और सिंचाई भी उसी से करनी पड़ती है। 




काका आगे बताते हैं कि बोर (गहरी खुदाई) करवाना हर किसान की बस की बात नहीं होती इसलिए किसी-किसी किसान के पास ही पानी है, बाकी किसान उनसे ही पानी लेते हैं। जिसके बदले में तुड़ाई के बाद फसल का एक हिस्सा पानी देने वाले को देना पड़ता है, फिर चाहे पानी लेने वाले को नुकसान हो या फायदा। 



खेतासर में कठिनाइयों से भरी खेती को कई युवा किसान अपनाना नहीं चाहते हैं। उन्हें खेती से ज्यादा फायदा अब गांव से बाहर छोटा-मोटा काम करने में दिखने लगा है। 10वीं पास पदम सिंह गांव से बाहर जाकर ट्रांसपोर्ट की गाड़ी चलाता है। पदम ने बताया कि उनके पास जमीन होने केबावजूद वह खेती नहीं करना चाहता।

सम्पूर्ण रपट बिहार से प्रकाशित शोध पत्रिका 'अनामा' के मई-जून माह के अंक में पढ़िए। पत्रिका मंगवाने के लिए मुझे सम्पर्क कर सकते हैं- 09968322105