एक राज्य के लोग दूसरे राज्य से आने
वाले लोगों से नफरत करने लगे हैं, कोई
साउथ से आता है तो मेट्रो सिटी में रहने वाले लोगों को
चिढ़ होती है, बिहार से आता है तो उससे सीधे से बात करने से पहले ही बिहारी कह-कहकर जलील किया जाता है। उत्तर-प्रदेश से महाराष्ट्र
में जाने वाले कई लोगों को इसी अजीब सी स्थिति से
गुजरना पड़ता है। इससे एक अलग-अलग राज्यों की
संस्कृतियों के बीच की दूरी एक बड़ी खाई में दब्दील हो रही है। शायद यह इसलिए भी है क्योंकि वर्तमान के प्रतियोगी दौर से
अंधाधुंध गुजर रहे समाज
को एक दूसरे से बात करने तक की फुरसत नहीं है। लोग अपने पड़ोस में ही रहने वाले लोगों से बात नहीं करते, दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को तो समझना दूर है। यहां तक कि इस भाग रहे जीवन में
अपने परिवार के सदस्यों
को भी
समय नहीं दे पा रहे हैं जिससे आपसी मेल-मिलाप व एक दूसरे को समझने की क्षमता घट रही है।
अभिषेक वर्मन द्वारा निर्देशित फिल्म 2 स्टे्टस देखी, जिसमें
देश में सांस्कृतिक समझ के कम होते रहने से उपज रही सांस्कृतिक दूरियां दिखाई गई है। अभिनेता अर्जुन कपूर ने
मेट्रो सिटी में रहने
वाले अपने ही कल्चर के दायरे में सिमटे परिवार के बेटे की भूमिका बखूबी निभाई
है वहीं अलिया भट्ट दक्षिण भारतीय उच्च शिक्षित व विभिन्न संस्कृतियों से अनभिज्ञ रहने वाले परिवार की बेटी के रूप
में नजर आईं। कहानी
की शुरूआत वाकई व्यवहारिक लगती है। अर्जुन कपूर व अलिया भट्ट आईआईएम अहमदाबाद में
एमबीए करने के दौरान मिलते है। वहां दोनों को प्यार होता है, दोनो शादी करना चाहते हैं, दोनों अपने-अपने माता-पिता को मिलवाना चाहते हैं लेकिन
पहली मुलाकात में दोनों के परिवार एक दूसरे की संस्कृतियों को न समझते हुए
हिचकते हुए बात ही नहीं कर पाते। जिसके बाद दोनों के परिवार के मन में
पूर्वाग्रह जन्म लेता है। वहीं एक तरफ क्रिष (अर्जुन कपूर) की मां (अर्मिता सिंह) दहेज के रूप में अपनी महत्वकांशा पूरी करने का
ख्वाब भी
सजा लेती हैं और इन सब के बीच क्रिष (अर्जुन कपूर) के पियक्कड़ पिता का
किरदार अदा कर रहे रोनित रॉय भी
अपने बेटे की भावनाओं को नहीं समझ पाते हैं।
इसी तरह अनन्या (अलिया भट्ट) अपने माता-पिता को मनाने की कोशिश
करती है
लेकिन पिता (शिवकुमार) व मां (राधा स्वामिनाथन) पूर्वाग्रह में उलझे रहते हैं और अपनी बेटी की भावनाओं को समझ नहीं पाते। कोशिश
करने के बावजूद कुछ नहीं
हो पाता, रिश्ता टूट
जाता है। हालाकि वास्तविक जीवन से हटकर फिल्म का अंत सुखद दिखाया गया। दोनो परिवार एक दूसरे की संस्कृति को
जनते हैं और बातचीत
कर सांस्कृतिक दूरियां मिटा लेते हैं। देश का समाज प्रतियिगता के चक्कर में
अलग-थलग पड़ता जा रहा है। फिल्म की तरह सुखद रिश्ते स्थापित करने के लिए समाज के
हर वर्ग को एक दूसरे सांस्कृति को मान देना होगा।

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